Sunday, March 5, 2017

हम क्वियर लोग !


जयपुर शहर में समलैंगिकों के अधिकारों के लिए गुलाबी प्राइड वॉक !!


 एलजीबीटी समुदाय जिसे हम लेस्बियन, गे ,बाई सेक्सुअल तथा ट्रांसजेंडर के रूप में संबोधित करते है ,अब वे स्वयं को क्वियर समुदाय कहते है ।भारत के मर्दवादी समाज में यौन चर्चा तक अनुचित मानी जाती है ।यहाँ तक कि विद्यार्थियों को यौन शिक्षा दिए जाने का भी संस्कृति के नाम पर विरोध किया जाता है।ऐसे समाज में कोई इंसान स्वयं की यौनिक पहचान जो कि मर्द या पुरुष के अलावा भी होती है ,उसे सार्वजनिक करना चाहे तो उसे स्वीकारा जाना काफी कठिन हो जाता है ।

हम लोगों को पुरुष या महिला के रूप में ही वर्गीकृत करने में ही सक्षम हो पाए है। अभी थर्ड जेंडर के बारे में हमारी धारणाएं अजीबोगरीब किस्म की ही है। हम महिला पुरुष से इतर  किसी जेंडर की पहचान को  मानने को राज़ी ही नहीं हो पाते हैं।अलबत्ता बहुत ही अनमने तरीके से हम उन्हें किन्नर कह कर आसानी से इग्नोर कर देते है।

भारत में समलेंगिकता को लेकर सामाजिक स्टीरियो टाइप्स धारणाएं तो मौजूद है ही वैधानिक रूप से भी इस पर कई पाबन्दियाँ आयद है। इसलिए लोग जीवन भर अलग तरह की पहचान और उससे पैदा होने वाली घुटन के साथ जीने को मजबूर हो जाते है।भारत में विगत कुछ वर्षों से समलेंगिकता को लेकर कार्यरत समूहों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया है।धारा 377 के विरोध से लेकर हर वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में प्राइड परेड का आयोजन इसमें उल्लेखनीय है।

राजस्थान की राजधानी जयपुर में भी क्वियर समुदाय ने आज तीसरी गुलाबी क्वियर प्राइड परेड का आज आयोजन किया।शहीद स्मारक से लेकर अल्बर्ट हॉल तक क्वियर समुदाय के लोगों ने ढोल बजा कर ,नाचते गाते हुए,चटख रंगों से भरपूर वस्त्र धारण करके अपनी यौनिकता का खुल कर जश्न मनाया।

क्वियर समुदाय की ओर से जारी पर्चे में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हम क्वियर लोग आज अपनी गर्वीली गुलाबी रैली के लिए शहर की सड़कों पर उतर आये है। हमें अपने समलिंगी होने पर नाज़ है।हम आज शान से यह साफ कहना चाहते है कि हमें हमारी लैंगिक पहचान को सबके सामने ज़ाहिर करते हुए गर्व की अनुभूति होती है।नई भोर संस्था की संस्थापक पुष्पा गिदवानी कहती है कि हम भी इसी समाज के नागरिक है ,हम किसी दुसरे ग्रह से नहीं आये है और न ही असामान्य या अप्राकृतिक लोग है .हम आप जैसे ही है इसलिए हमें भी हमारे नागरिक अधिकार मिलने चाहिए .

ये वो लोग है जिन्हें अक्सर हिंजड़ा कह कर मजाक उड़ाया जाता है ,जिनको लेस्बियन या गे होने की वजह से समाज से बहिष्करण झेलेना पड़ता है ,जिनको कोई घर किराये पर नहीं देता। सरकारें नौकरियां नहीं देती और निजी नियोक्ता जिनको अपने प्रतिष्ठानों में घुसने तक नहीं देते । हर रोज जिन्हें लिंग आधारित हिंसा को सहन करना पड़ता है ।

तथाकथित समाज यह बरदाश्त ही नहीं कर पता है कि कोई लड़का किसी लड़के के साथ रहें या उसी के साथ जीवन गुजार दें ,वैसे तो लौंडेबाजी के बड़े किस्से सुने सुनाएं जाते है और मौका मिलने पर इस तरह के सम्बन्ध स्थापित करने में भी कोई झिझक नहीं रखते है ,मगर परिवार का कोई सदस्य अपनी लैंगिक पहचान को उजागर करना चाहे या अपनी यौनिकता का इज़हार करना चाहे तो सम्पूर्ण धर्म और संस्कृतियां हांफने लग जाती है।इसकी वजह से बड़ी संख्या में लोग झूठा जीवन जीते रहते है।कईं ज़िन्दगियाँ ऐसे ही बर्बाद होती रही है ।
पर अब वक़्त बदल रहा है ,एलजीबीटी समुदाय के लोग अपनी यौनिकता का सड़क पर खुलेआम जश्न मना रहे है तथा कह रहे है कि लिंग ,जाति ,वर्ग ,धर्म ,विकलांगता और ज़ेडर तथा यौनिकता के आधार पर भेदभाव बंद होना चाहिए।इतना ही नहीं बल्कि मतभेद ज़ाहिर करने की आज़ादी पर राष्ट्रवाद के नाम पर लगाई जा रही रोक एवं अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति हिंसा की भी क्वियर समुदाय जमकर मुखालफत कर रहे है।ये बड़े लोकतान्त्रिक मुद्दे है ,जिन पर यह उपेक्षित और वंचित समुदाय अपनी स्पष्ट राय रखने का साहस कर रहा है।

क्वियर समुदाय के प्रति आम समाज का नज़रिया बदले इसलिए आज की प्राईड परेड में कई अन्य लोग भी सम्मलित हुए और उन्होंने भी क्वियर समुदाय की मांगों के प्रति एकजुटता जाहिर की है। इस मौके पर मैं भी आज इस रैली का हिस्सा बना। मुझे अच्छा लगा कि हमारे देश का लोकतंत्र इस प्रकार की आवाजों को सुनकर और अधिक समावेशी बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यही तो भागीदारी वाला लोकतंत्र है ।

-भंवर मेघवंशी
( संपादक -शून्यकाल यूट्यूब चैनल )

Saturday, March 4, 2017

कितने किरवले मारोगे ?

मराठी भाषा के प्रकांड विद्वान एवं अंबेडकरवादी चिंतक प्रोफैसर कृष्णा किरवले को कोल्हापुर में उनके आवास पर चाकुओं से गोदकर निर्मल तरीके से मार डाला गया ।
शिवाजी यूनिवर्सिटी के मराठी विभाग के प्रमुख रहे प्रोफेसर  किरवले ने  ग्रामीण मराठी साहित्य की बहुत सेवा की ,62 वर्षीय प्रोफ़ेसर किरवले  की हत्या का भी वही पैटर्न था जो प्रोफेसर कलबुर्गी और गोविंद पानसरे की हत्या का था।

 आखिर इस देश में हो क्या रहा है ? हम विचारवान लोगों को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पा रहे हैं ? प्रोफेसर किरवले जैसे लोगों हमारे लिए गौरव का विषय होने चाहिये, मगर हमारे समाज में फैल रही कट्टरता और नफरत के चलते अब कवियों , लेखकों कलाकारो ,बुद्धिजीवियो को मारा जा रहा है ।

 देश भर में स्वतंत्र विचार और असहमत अभिव्यक्तियों को रौंदा जा रहा है । विश्वविद्यालय जो कि दिमागी संकीर्णताओं को मिटाने के केंद्र है अब वहीं जेहनी गुलामी थोपने के सारे इंतजाम किए जा चुके है । अभिव्यक्ति की आजादी पर राष्ट्रवाद की लाठी हर क्षण चल रही है । संस्कृति के स्वयंभू पहरेदार और देशप्रेम के स्वघोषित ठेकेदारों ने ऐसी दहशतगर्दी फैला रखी है कि उनके सामने हिटलर का नाजीवाद भी बौना लगने लगा है।

 जो लोग किताबें पढ़ते तक नहीं हैं ,वे  किताबों पर प्रतिबंध लगवा रहे है । कई किताबें फिर से लुगदी में तब्दील हो चुकी है । जिन्हें कला की समझ नहीं वह कलाकारों को निर्देश दे रहे हैं । जिनको सिनेमा का क ख ग तक नहीं आता, वे अब तय कर रहे हैं कि फिल्मों में कंटेंट क्या होगा ? अब जातीय सेनाएं सेंसर बोर्ड का स्थान ले रही है । चित्रकार अपनी कूची से क्या उकेरेंगे , यह अब चरमपंथी समूहों के सरगना तय कर रहे हैं और बुद्धिजीवियों को क्या बोलना चाहिए तथा विचारवंतों को क्या लिखना चाहिए, यह रूढि़वादी, मूलतत्ववादी ,कट्टरपंथी लोग तय कर रहे हैं ।

अजीब दौर से भारत गुजर रहा है । कहने को तो लिखने की ,बोलने की , अभिव्यक्त करने की आजादी है , पर इस आजादी को इस्तेमाल करने के बाद जीने की कोई आजादी  नहीं है । अभी हमने नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविंद पंसारे प्रोफ़ेसर कलबुर्गी और प्रोफेसर किरवले को खोया है ,आगे और न जाने कितने दाभोलकर ,पंसारे , कलबुर्गी और किरवले हमको खोने है ? 

 दक्षिणपंथी फासीवाद का यातना गृह अभी बहुत सारों की प्रतीक्षा में हैं क्योंकि जो भी आजाद खयाल होंगे ,स्वतंत्र रूप से लिखेंगे , बोलेंगे और विचार करेंगे । वे सभी उन्मादी भीड़ के हाथों मारे जाएंगे । हम मनुवादी फासिज्म के भयंकर दौर में जी रहे हैं , जहां आज फिर बोलने पर जीभ काटी जाएगी ,लिखने पर गालियां एवं गोलियां मिलेगी और निर्मम तरीके से कत्ल तक किए जाएंगे । 

हम उस भयानक समय के साक्षी हैं जहां सर्वोच्च सत्ता स्वयं नरभक्षी हो चुकी है । ऐसे में यह सत्ता और  उसके द्वारा पोषित गुण्डा तत्व न जाने कितने विचारशील ,तर्कशील, वैज्ञानिक चेतना के धनी विचारवंतों की जान लेगी ,यह आज का सबसे बड़ा सवाल है । 

अब भी समय है जब हमें जागना होगा , खड़ा होना होगा ,क्योंकि यह सिर्फ प्रोफेसर कृष्णा किरवले की मौत नहीं है, यह सिर्फ एक अंबेडकरवादी विचारवंत की हत्या मात्र नहीं है बल्कि उस विचार की भी हत्या है ,जो स्वतंत्र रूप से सोचता है बोलता है ,लिखता है और लोगों को जेहनी गुलामी से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है । यह सबके दिमागों का कत्ल है। यह विचारों का कत्ल है ,  यह मानव सभ्यता की विचारसरणी और उसके शब्दों का वध है । इंसानियत के  विरूद्ध हो रही इस साजिश के खिलाफ हमें बोलना होगा । सिले हुये मुंह को खोलना होगा ।

- भंवर मेघवंशी 
(संपादक-  शून्यकाल यूट्यूब चैनल )

Friday, March 3, 2017

घुमन्तू बंजारों से हारी राजस्थान की भाजपा सरकार !

भीलवाड़ा जिले की शाहपुरा विधानसभा क्षेत्र के ढीकोला गांव के लोगों ने हमसलाह हो कर सन 2014 की 19 अप्रैल की सुबह डूंगरी चौराहा स्थित बंजारा बस्ती पर हमला बोल दिया। उन्मादी भीड़ को जो भी मिला ,उसे तहस नहस कर दिया। केरोसिन तथा पेट्रोल छिड़क कर घर जलाये,ट्रेक्टर ,मोटर साईकिलें को आग के हवाले कर दिया।चांदी सोने के गहने और नकदी लूट ली। गांव में मौजूद बंजारा महिलाओं के साथ अभद्रता की,उनके कपडे फाड़ दिए ।करीब 42 बंजारा परिवारों के मकान बर्बाद कर दिए।भीड़ ने पुलिस की मौजूदगी में कई घंटों तक जमकर तांडव मचाया ।

इस गंभीर मामले की प्राथमिकी शाहपुरा थाने में पीड़ित मोहन बंजारा ने दर्ज करवाई । मुकदमा संख्या 222/14 भारतीय दंड संहिता की धारा 147,148,149,395,452,354,436 तथा आर्म्स एक्ट 4/25 एवं 3 पीडीपीपी एक्ट के तहत दर्ज हुआ।जाँच के पश्चात 141 लोगो के विरुद्ध चार्जशीट पेश हुई,46 लोग गिरफ्तार हुये।इस हमले की राष्ट्रव्यापी निंदा हुयी।
ऐसे गंभीर आपराधिक प्रकरण को राज्य सरकार ने 23 नवम्बर 2016 को विड्रॉ करने का आदेश प्रदान कर दिया। यह वोटों के लालच में किया गया अन्यायपूर्ण फैसला था,जिसे स्थानीय भाजपाईयों के दबाव में लिया गया।यह बहुत ही गुपचुप तरीके से किया गया,ताकि फरियादी पक्ष को अपने लिए वक़्त ही नहीं मिल सके,पर किसी तरह पीड़ित बंजारा समुदाय को इसकी समय रहते भनक मिल गई और उन्होंने प्रोटेस्ट अप्लीकेशन दायर करवा दी।

इतना ही नहीं ,बल्कि पीड़ित लोग बंजारा युवा शक्ति संगठन के नेता परश राम बंजारा व कालु बंजारा के नेतृत्व में विधान सभाध्यक्ष कैलाश मेघवाल तथा गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया और गृह सचिव दीपक उप्रेती एवं मुख्यमंत्री के सचिव डॉ केके पाठक से मिले तथा उनसे मामले को वापस नहीं लेने की अपील की। सरकार में हर स्तर पर हैरानी जताई गई कि इतना गंभीर मामला वापस लेने का निर्णय कैसे हो गया । पुनर्विचार का भी आश्वासन दिया गया।फाइलें भी मंगा मंगा कर देखने दिखने की नाटकबाजी की .हालाँकि लोगों को इन राजनितिक व प्रशासनिक लोगों पर यकीन नहीं था ,वे कानूनी लड़ाई को भी मज़बूत करते रहे।सड़क से लेकर न्यायालय तक संघर्ष छेड़ा गया।

राजस्थान बार कौंसिल के पूर्व अध्यक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेश श्रीमाली ने इस केस में पैरवी करने का बंजारा समाज का अनुरिध स्वीकार कर लिया,जिससे पीड़ित पक्ष में उत्साह व्याप्त हुआ.10 फ़रवरी 2017 को एडवोकेट सुरेश श्रीमाली शाहपुरा स्थित एडीजे कोर्ट में पेश हुए,उन्होंने बहस हेतु निवेदन किया ,मगर बचाव पक्ष ने टाइम मांग लिया,कोर्ट ने 3 मार्च की तारीख नियत कर दी। इसी दिन अम्बेडकर पार्क में हुए बंजारा सम्मलेन को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि चाहे सुप्रीम कोर्ट तक भी जाना पड़े ,लेकिन बंजारों को न्याय दिलाएंगे।केस किसी कीमत पर विड्रॉ नहीं करने देंगे।
अंततः आज 3 मार्च 2017 को एडीजे कोर्ट शाहपुरा में हुयी जोरदार बहस में पीड़ित बंजारों की ओर से पैरवी कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेश श्रीमाली द्वारा दिए गए तर्कों से सहमत होते हुए न्यायाधीश महोदय ने फैसला दिया कि इस प्रकार के गम्भीर प्रकृति के आपराधिक प्रकरण को राज्य सरकार जनहित में वापस नहीं ले सकती है।केस न्यायालय में चलता रहेगा।

इस तरह से पीड़ित गरीब घुमन्तू बंजारा समाज की आज कोर्ट में बड़ी जीत हुयी है और राजस्थान की भाजपा सरकार को बड़ा झटका लगा है,उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है।न्यायालय के निर्णय के बाद बंजारा समुदाय तथा न्याय के पक्षधर लोगों एवम संगठनों में हर्ष व्याप्त है ।

-भंवर मेघवंशी
( संपादक -शून्यकाल यूट्यूब चैनल )

अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए प्रयासरत एक युवा - ललित दार्शनिक

सीकर जिले के नीम का थाना कस्बे के 30 वर्षीय युवा ललित दार्शनिक जगदीश प्रसाद यादव तथा कमला देवी के सबसे बड़े बेटे है। उन्होंने अपने ही कस्बे के सेठ नंदकिशोर पटवारी राजकीय महाविद्यालय से दर्शन शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन किया।

बचपन से ही उनका सपना सामाजिक कार्यकर्ता बनने का रहा है,पर वे ऐसा काम करना चाहते थे ,जिसे आम तौर पर लोग नहीं करना चाहते हो । सोचते सोचते अचानक उनको एक दिशा मिल गई। अगस्त 2013 में प्रगतिशील विचारक डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या का समाचार उनकी नज़र से गुजरा । उनकी रूचि जगी कि दाभोलकर के विचारों में ऐसा क्या था कि उनकी हत्या की नौबत आ गई। अख़बारों, किताबों और ऑनलाइन सामग्री से ललित को दाभोलकर के मिशन के बारे में जानने को मिल गया। ललित दार्शनिक को जैसे अपने जीवन का उद्देश्य हासिल हो गया था। उन्होंने तय किया कि वे अब अंधश्रद्धा और पाखंड के उन्मूलन के लिए काम करेंगे।
पर कैसे करेंगे इसका कुछ पता नहीं था। अब से पहले वो खुद अंध विश्वासों में डूबे हुए थे। पूजा पाठ,कर्मकांड और घनघोर आस्तिकता उन पर हावी थी। इसलिए सबसे पहले उन्होंने खुद को बदलने का संकल्प लिया। ललित आज बड़े गर्व से कहते है कि -' पिछले 3 सालों से मैं नास्तिक के रूप में जीने का प्रयास कर रहा हूँ। सारे धार्मिक क्रियाकर्म छूट गए है,अब हर चीज़ को वैज्ञानिक नजरिये से देखने लगा हूँ।जब तक जान नहीं लेता ,कुछ भी नहीं मानता ।'

ललित दार्शनिक सोशल मीडिया के ज़रिये लोगों में तर्कशीलता और वैज्ञानिक समझ बढाने के लिए प्रयासरत है। वे चमत्कारों के ख़िलाफ़ लोगों के बीच जा कर ना केवल बात कर रहे है ,बल्कि कथित चमत्कारों का वैज्ञानिक रीति से पर्दाफाश भी करने में लगे हुए है।उनका कहना है कि -" दुनिया में चमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता है।हरेक घटना के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण होता है।जब तक हम उस कारण को नहीं जानते ,तब तक वह हमारे लिए रहस्य या चमत्कार बना रहता है।जब हम उस कार्य के कारण को समझ लेते है तो फिर वह चमत्कार नहीं रह जाता ".

ललित दार्शनिक कई प्रयोगों एवं रासायनिक संयोगों का प्रर्दशन करके भी लोगों को जागरूक करते है ।वे तलवार से हाथ काटना और खून नहीं निकलने देना ,बिना माचिस आग लगाना, पानी से दीपक जलाना ,फोटो से भभूत निकालना, पानी से चीनी बनाना ,देवी देवताओं का दर्शन करवाना और उन्हें गायब कर देना ,निम्बू से खून निकालना तथा तीन फीट की तलवार को मुंह में निगल जाना आदि काम करके दिखाते है।वे इनको चमत्कार नहीं मानते,इसके बारे में लोगों को जानकारी देते है तथा उसका कारण स्पष्ट करते है।
ललित देश भर में कार्यरत तर्कशील सोसायटियों से भी जुड़े हुए है।उनका संपर्क अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति महाराष्ट्र से भी जुड़ाव है।

ललित ने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए मृत्य पश्चात देहदान का भी संकल्प लिया है और इसी वर्ष 13 जनवरी को सवाई मानसिंह मेडिकल कालेज जयपुर को अपनी देह का दान कर दिया है। उनका कहना है कि अंतिम संस्कार और मृत्यभोज जैसे अंध विश्वासों को टक्कर देना बहुत जरुरी है।वैस्व भी देहदान मरने के बाद भी जीने का सबसे शानदार तरीका है।

ललित दार्शनिक ने अपने जीवन का उद्देश्य विज्ञान के प्रति लोगों को जागरूक करना बनाया है।उन्होंने परिवर्तनम नामक एक संगठन की स्थापना की है ,जिसके ज़रिये वे स्कूलों ,कॉलेजों तथा अन्य जगहों पर जा कर लोगों में वैज्ञानिक चेतना ,तर्कशीलता और प्रगतिशील मूल्यों के प्रति जानकारी देना चाहते है।

एक ऐसे दौर में जबकि अंधश्रद्धाओं के अँधेरे ने सारी मानवीय चेतना को कुंद करने का भयानक माहौल बना रखा है ,ऐसे में ललित दार्शनिक जैसे स्वतंत्र सोच के प्रगतिशील युवा भारतीय समाज के लिए उम्मीद के जुगनू बन कर चमक रहे है ,यह बहुत ही आशाजनक बात है ।हालाँकि उनको भी अंधभक्तों की तरफ से गालियां व धमकियां मिलने लग गई है मगर इससे वे तनिक भी विचलित नहीं है,क्योंकि उनका मानना है कि विरोध हमारे काम एवं विचार को मान्यता मिलने की दिशा में पहला कदम है ।

-भंवर मेघवंशी
( संपादक - शून्यकाल यूट्यूब चैनल )

धर्म ध्वनियों का आतंक !

अक्सर विभिन्न धर्मस्थलों से अलसुबह ,चिलचिलाती दुपहरी और अलसाई सी शामों को जब दिल चाय पीने की इच्छा करता है और आराम का तलबगार होता है ,तब कानफोडू आवाज़ों में अल्लाह ईश्वर को पुकारने की प्रतिस्पर्धा सी होने लगती है .अगर आपका घर किसी ईश्वरीय निवास के नजदीक है तो आप जरुर हर दिन भगवानों के आतंक से दो चार होते होंगे .धर्म अच्छे भले शांत नागरिक की नींद हराम कर देता है और वह शांति देने के बजे अशांति देने लगता है .

भारत में प्रचलित लगभग सारे धर्म इतने शोरगुल को क्यों पसंद करते है ,यह आज तक मैं नहीं समझ पाया .रात रात भर सत्संगे ,जगराते ,मिलाद और मंत्रजाप भयानक किस्म की आवाज़ों में चलते है .कहीं कहीं तो अत्यंत कर्कश स्वरों के मालिक भी अपने मालिक को पुकारते रहते है .मुझे तो यकीं है कि इनका मालिक एकदम बहरा हो गया होगा ,इतनी ऊँची आवाज़ों को बर्दाश्त करते करते .

संत कबीर ने कभी कहा था कि जिसे चीटीं की पदचाप तक सुनाई दे जाती है ,उसको सुनाने के लिये बांग लगा रहे हो ,क्या तुम्हारा खुदा बहरा है ? बहुत हिम्मत की कबीर साहब ने उस ज़माने में .आज होते तो धार्मिक भावनाएं आहत करने के जुर्म में 295 ( ए) के तहत जेल पंहुच जाते .

बांग तो मुल्ला जी और पंडित जी अब भी वैसी ही लगा रहे है ,बल्कि उससे भी ज्यादा .माईक लगा कर ,पर अब खरी खरी कहने वाले कबीर नहीं है .चारों तरफ चिल्लपों मची हुई है .विचारविहीन भीड़ की अराजकता है .तमाम किस्म के ध्वनि नियंत्रक कानूनों के बावजूद धर्म के नाम पर ध्वनि प्रदूषण जारी है .जो बोले उसको जेल का खेल हो रहा है .इसलिये ईश्वर का नाम सुनने की इच्छा है या नहीं पर मजबूरन सुननी ही पड़ रही है .करोड़ों लोग इन धर्म ध्वनियों के मारे हुये है ,अकेले में आलोचना करते है ,मगर आमने सामने बात करने अथवा पुलिस में जा कर कम्पलेंट करने की हिम्मत कोई बिरला ही दिखा पाता है .

पर इसी निराशाजनक माहौल से उम्मीद की किरणें भी फूटेगी. अच्छी खबर यह है कि फूटने भी लगी है ,साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के प्रशासन ने इस ध्वन्यात्मक आतंक पर लगाम लगाने की शुरुआत विगत कुछ समय से कर रखी है .जिला प्रशासन ने विभिन्न धर्मस्थलों पर लगे माईकों की आवाज़ को कम करवा दिया है और उनके लिए समय सीमाओं का भी निर्धारण किया है .अब रात रात भर माईक पर गला फाड़ने की इजाज़त नहीं है .रैलियों में ,रात्रि जागरणों में ,कवि सम्मेलनों में ,शादियों में ,मेलों में ,महिला संगीतों में बजने वाले डीजे साउंड जब्त किये जा रहे है .

एक स्थान पर तो जिला कलेक्टर की मौजूदगी में ही शिक्षक समुदाय की देशभक्ति डीजे के ज़रिये फूट पड़ी .जिलाधिकारी कार्यक्रम छोड़ कर चले गये और मास्टरों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया .शिक्षक और डीजे वाला बाबू गिरफ्तार हो गये तथा डीजे जब्त हो गया .हालाँकि शिक्षक संगठनों ने जिला कलक्टर की इस कार्यवाही के प्रति आक्रोश जताया ,लेकिन जनता ने इसका स्वागत ही किया .इतना ही नहीं एक जगह पर तो कविगण कविता पाठ से ही वंचित रह गये ,पर श्रोताओं को शांति मिली .

एक जिला ऐसा कदम उठा सकता है तो क्या अन्य जिले नहीं उठा सकते ? विज्ञान और टेक्नोलोजी के विरोधी पंथ ,सम्प्रदाय , धर्म , मजहब माईक के इस्तेमाल के बारे में अपने धर्मग्रंथों की गाईडलाईन के बारे में खामोश क्यों रहते है ? उन्हें बताना चाहिए कि उनके पवित्र ग्रन्थ माईक ,डीजे ,मोबाईल ,मोटरगाड़ी ,जींस और हवाई जहाज तथा ट्रेन के उपयोग के बारे में क्या कहते है ? सुविधाएँ लेने और शोरगुल मचाने में अपने मन की बात करते है और अन्य जन को पीड़ित करने में सदैव आगे रहने वाले लोग धार्मिक नहीं हो सकते है.वे शुद्ध रूप से राजनीतिक लोग है .वे धर्म का भी राजनीतिक उपयोग ही कर रहे है .

इस भयंकर कोलाहल को धर्म नहीं ढोंग कहा जाना चाहिये .यह तो मजहब के नाम पर मक्कारी ही है .पर बोलेगा कौन ? जो भी बोलेगा ,मुंह खोलेगा ,वह देशद्रोही हो जायेगा .इसलिए अधिकांश लोग इस ध्वनी आतंक से आतंकित होने के बावजूद भी चुप ही रहने में भलाई समझे हुये है .

- भंवर मेघवंशी
( संपादक - शून्यकाल यूट्यूब चैनल )